।। शक्‍ति यात्रा।।



-आचार्य चंद्रशेखर शास्‍त्री


शक्‍ति एक अनन्त प्रवाह है, चेतना के ऊर्ध्वगामी होने से यह सतोगुण से परिपूर्ण करती है, मध्यगामी होकर रजोगुण और अधोगामी होकर तमोगुण का प्रवाह करती है। मनुष्य क्योंकि जल प्रधान है, शरीर में साठ प्रतिशत से अधिक जल है, इसलिए यह जल जैसी प्रवृत्‍ति को अधिक प्राप्त होता है, जल का स्वभाव पतनशील होता है, जल को कितना ही ऊपर की ओर उछालें, उसे नीचे ही गिरना होता है, इसी करण महान पर्वतों के शिखर से निकलकर महान नदियां समुद्र बना देती हैँ। इसलिए अपने स्वभाव से जुड़ा मनुष्य तमोगुणी होकर तरह तरह के कुटेवों से ग्रस्त होकर अपने इस दिव्य और देवों के लिए भी दुर्लभ शरीर को कुकर्मों से घेर लेता है और शरीर के भोगों को अद्भुत और आनंदकर मानते हुए उन्हें भोगने में प्रसन्नता का अनुभव करता है।


जल का संबंध चंद्रमा से है, इसलिए यह कल्पनाओं से प्रारंभ होता है और यथार्थ में बहता है। शरीर मरणधर्मा है और मन अनन्त ऊर्जा से भरपूर। मन की ऊर्जा का सुचालक चंद्रमा ही है, मन चंद्रमा का गुप्त रूप है, जो शरीर में किसी स्‍थान में विज्ञान आज तक खोज नहीं पाया और खोज पाएगा भी नहीं, क्योंकि यही उस लीलावती की लीला है कि उसके किसी क्रियात्मक का पता किसी को पूर्ण हुए बिना नहीं चलता, वह भगवती अपनी असीम शक्‍तियों से सब कार्य संभव करती हैं। क्योंकि सारी सृष्‍टि कृष्‍ण शिरा (छिद्र) से निर्धारित होती है, उसी में प्रकाश के कुछ खण्ड भी प्रवाहित होते हैं, तो घूर्णन करने से गोल हो जाते हैं। इन्हीं प्रकाशित होते गोलों में महाप्रकाशमान सूर्य के रूप में वह शक्‍ति विराजती है, जो जीवन का कारण है। समस्त आकाशगंगाएं शक्‍ति से संचालित होती हैं, सबमें करोडों सूर्य हैं, उन्हीं आकाशगंगाओं में एक है सरस्वती आकाशगंगा, जिसमें यह जीवन विराजता है और हम सब इस आकाशगंगा के महान खगोलीय पिंड सूर्य से जीवन के ताने बाने बुनते हैं, सूर्य, जोकि आत्मा का कारक है। उसी के प्रकाश से परिवर्तित ऊर्जा का भंडार चंद्रमा को प्राप्त है, जिससे मन संचालित होता है। अक्ष्‍ाय ऊर्जा के कारण मन की गति महाचंचल होती है, क्योंकि ऊर्जा को केवल गति की आश्यकता होती है। वह बिना गति के रह नहीं सकती। यह गति की ही प्रतिक्रिया है कि कर्म होता है और उसका फल प्राप्त होता है। यही सब उपद्रवों का, अच्छे बुरे का कारक है। इसी मन की अवस्‍थाएं हमें सतोगुणी, रजोगणी और तमोगुणी बनाती हैं।
सभी गुणों की तरह तमोगुण मनुष्य की शक्‍ति है और यह परम प्रभावी है, इसीलिए छोटे से अबोध बच्चे से बड़े तक एक गलत शिक्षा जो पतनशील हो, सब तुरन्त ग्रहण कर लेते हैं और सही मार्ग पर चलने में सबको सामान्य समस्या होती है। इसीलिए इस तमोगुण के साधने का नाम शक्‍ति साधना कहा गया। तंत्र के जितने भी तमोगुणी प्रयोग हैं, पंचमकार से प्रणव तक, जो तमोगुण से सतोगुण की यात्रा कराते हैँ, वे उन सबके मूल में तमोगुण के विशेष प्रयोग हैं और उनसे आगे निकलने की व्यवस्‍था का एक क्रमबद्ध मार्ग निर्धारित हुआ है, जिसे साधना का प्रहला और मुख्य आयाम कहा गया है। कह सकते हैं कि जिसने तमोगुण को साध लिया, उसके लिए कुछ शेष नहीं रह जाता, क्योंकि यात्रा का प्रारंभ यहीं से होता हे, जो रजोगुण को प्राप्त करता हुआ सतोगुण तक पहुंचकर उस परम शक्‍ति में विलीन हो जाता है और करोडों वर्ष उसे कृष्‍ण में समाहित रहता है।


चेतना का मध्यगामी प्रवाह शिव और शक्‍ति के सायुज्य को प्राप्त कर रजोगुण को प्राप्त होता है और वैष्‍णवी वृत्‍तियों को भोगता है। तमोगुण से यात्रा का आरम्‍भ होकर जब वह रजोगुण तक पहुंचता है तो यह अवस्‍था आती है। तमोगुण से सतोगुण की यात्रा का यह मध्यमार्ग मात्र है, इस यात्रा में मनुष्य दैहिक और भौतिक सुखों से ओतप्रोत संसारी आनंद को भोगता है। आज अधिकतम की दौड़ रजोगुण तक ही है। जब तमोगुण को प्राप्त मन(चंद्रमा) शक्‍ति के रक्‍तिम प्रवेग को प्राप्तकर सूर्य की रश्‍मि से दमकते हुए शुक्र को ऊर्ध्वगति की ओर संचालित करने लगता है तो श्रीआभा से युक्त होकर उसका प्रभामंडल मंत्रमुग्‍ध कर देता है। ज्योतिष में इसे चंद्र शुक्र और मंगल से देखते हैँ। यह रक्‍तिम प्रवेग साधक की असीमित ऊर्जा को जागृत कर देता है और उसका बिंदू संरक्षण उसकी गति को उन्नति देता है, जो उसकी सभी सांसारिक मनोकामनाओं की पूर्ति का मार्ग है, लेकिन उसमें लिप्त हो जाने से वह पुनः तमोगुण की ओर गिरने लगता है, इसलिए सूर्य का आश्रय आवश्यक हो जाता है। बिना गुरुर्मा के इन दुरुह और गुप्त व्यवस्‍थाओं को छूने मात्र से भी भीषण हानि की संभावना होती ही नहीं, हो जाती है। इसलिए गुरु आश्रय विहीन को यह सब प्राप्त नहीं हो पाता। गुरु भी उन्हीं को देते हैं, जिनको देख लेते हैँ कि साधक उसके लिए उपयुक्त है।


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